आदमी समाज और समाज की फितरत

मैं बहुत छोटा था। गांव में पारिवारिक परंपरा के अनुसार बचपन गुजर रहा था। उस समय मेरी उम्र तकरीबन छ:ह सात साल की थी। मेरे दादा परिवार व समाज की परंपरा से मुझे वाकिफ कराते थे। उस समय मेरे यहां जमींदारी पूरी तरह तो नही, लेकिन उसकी ठसक जरूर लागू थी। मेरे दरवाजे पर आने से पहले लोग थोड़ी दूरी पर अपनी छतरी माथे से उतार लेते थे। दरवाजे पर आने के साथ जूता या चप्पल जो भी हो खुल जाता था। आवाज आती थी मालिक बानी। परिवार के सदस्यों को छोड़ किसी की भी हिम्मत नहीं होती थी कि वह दरवाजे पर लगी जंजीर बजा दे। मैं यदि स्कूल से लौटा रहता था तो खट दरवाजे पर जाता था और मौके पर गंदे कपड़े में लिपटे लोग बउआ कहकर गोद में ले लेते थे। अभी ठीक से बात कर पाता कि घर के बड़े बाहर आ जाते थे और वह गरीब मुझे अपनी गोद से उतार देता था। मानों जैसे भरत महरा को सांप सूंघ जाता था। भरत महरा कोई और नहीं थे मेरी बैलगाड़ी के गाड़ीवान थे। एक बार मैने पूछा कि भरत चाचा आप नीचे जमीन पर क्यों बैठते हैैं। तो वे बताते थे कि एकरा ला कोई बोलेला ना। इ हमनी के बाप दादा के सिखावल बात ह। रुउरा परिवार के लगे काफी जमीन बा रउरे जमीन में सबके जीवन बसर होला एहिसे इ सब अहिसन होला। भरत बताते थे कि बबुआ इ परिवार के परंपरा ह एकरा के निभावे के चाही। एकरा से इज्जत (सम्मान) मिलेला। तब जमाना कांग्रेस का था नेता आते थे चुनाव लड़ते थे। वे लोग चुनाव प्रचार में आते तो हमारे घर जरूर आते थे। उनका प्रिय भोजन होता था रोटी व भुजिया। बस यहीं खाते थे। गांव में एक चक्कर लगाते थे और सारी जिम्मेवारी समाज पर छोड़कर चले जाते थे। उस बार मैैं कांग्रेस पार्टी के बैच के कारण घर में पिटा भी था, लेकिन कांग्रेस चुनाव जीत गई। मेरे मन में बार-बार यह सवाल कौंदता था कि आखिर नेता इतने प्रिय क्यों हो जाते हैं। जैसे कि मनोज जी या फिर उनके पिता बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री केदार पाण्डेय जी। एक दिन फिर मैने भरत से पूछा तो कहने लगे- बबुआ जीवन में अहिसन नेता रउरा घर जहिसन मालिक ना मिलेला। फिर सवाल- लोग नीचे बैठते हैं फिर भी इतना सम्मान देते हैं। उस गरीब ने कहा कि मालिक दुआर से गरीब खाली ना जाला आ नेताजी से भेंट करे में दिक्कत ना होला एहिसे कोई घूमे चाहे ना घूमे चुनाव जीत जाला। इस संस्कार के बात ह। समय बदल गया मैं भी बड़ा हुआ पढ़ा लिखा और साधारण पत्रकार बन गया। एक बार अवसर मिला केदार पाण्डेय जी के घर जाने का। उनके दरवाजे पर जाने के साथ सारा मिथक टूट गया और वर्तमान से अतीत की तुलना में खो गया। फिर याद आए भरत चाचा। शायद वे सही थे। जिस देश व राज्य में आज कुर्सी के लिए जंग छिड़ी हो वहां ऐसे लोग कहां मिलेंगे। आज न तो केदार पाण्डेय जी है और न मनोज जी। मनोज जी के भाई हैं दरवाजे पर रहते हैं। खेती-बारी कराते हैं और लोगों से प्यार करते हैं। काश इस सामाजिक नदी के पानी में हलचल होती फिर भरत जैसे जिंदा दिल और विश्वस्त लोग होते और तब जैसी राजनीति भी होती।

Comments

  1. Sach karwa hota hai.Is sach ke liye bhut-bahut badhai. Raju.delhi.

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  2. aaj kal ke neta pahle jaise hote to hamara desh itna pjchhe nahi rahta

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  3. aapko bahut bahut badhai ho is blog ko likhne ke liyea

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