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Showing posts from 2010

तूफान को आने दो...

तूफान को आने दो। हवा को बहने दो। आग को लगने दो। बस्तियों को जलने दो। बदत्तमीजों को हद पार करने दो। नारी की सजी मांग उजडऩे दो। बेवा को सड़क पर तड़पने दो। बिजली को कड़कने दो, बादल को गरजने दो। बारिश को बरसने दो। नदियों को ऊफनाने दो। जलजला को आने दो। बस्तियों को तबाह होने दो। यहीं तुम हो यहीं मैं हूं। कातिल को मकतूल की कीमत लगाने दो। जलोगे तुम भी, जलूंगा मैं भी। बहोगे तुम भी, बहूंगा मैं भी। तूफान तब भी होगा, जलजला तब भी होगा। देखूंगा मैं भी, देखोगे तुम भी। तो फिर कैसी सोच, काहे की चिंता। तूफान को आने दो, तेज हवा को बहने दो।

काश मैं भी चंदन होता...

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काश मैं भी चंदन होता। सांपों के संग खेलता। फिर भी चंदन होता। मैं जो चंदन होता। पत्थर पे पिस जाता मैं। लोग लगाते माथे। देवों के सिर चढ़ता। खुद पर मैं इठलाता। सांपों के संग रहा मैं। सांपों के संग खेला। सांप रहे लिपटे मुझसे। मैं भी उनमे खोया।। ए सर्प बड़े जहरीले निकले। खूब रहे लिपटे मुझसे। विष छोड़ जलाया तन। मेरा क्या मैं चंदन था। मैने सब विष ग्राह्य किया। फिर भी विषधर न हुआ। मैं जो विषधर बनता। ना लोग लगाते माथे। ना देवों के सिर चढ़ता। काश मैं भी चंदन होता।

इस हंसी का क्या कहना यारों...

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इस हंसी का क्या कहना यारों। खूने जिगर से आए न आए। यार के होठों से हमेशा आती है। इसी दुनियां में अपना भी यार है। तू भी मेरा यार सही। वो भी मेरा यार सही। पर तू हंसता है तो दिखता है। वो भी हंसता है तो दिखता है। पर मैं जो रोता हूं। तेरी यारी की सौ मुझे। मैं रोज सुबह हंसता हूं। सड़क से गुजरता हूं। दुनियां को देखता हूं। मुफलिसी रोती है। अमीरी ताना देती है। बनाती है गरीबी की कोख। कोख से कुदाल वाला लाल। लाल चीरता है धरती का सीना। मरहम की जगह डालता है खाद। तब आती है खूने जिगर से हंसी।

पर्यावरण : बिहार के दोन को धुंआ रहित करने की तैयारी

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लंबे समय से दुधिया रोशनी को तरस रहे बिहार के पश्चिम चम्पारण जिला अंतर्गत रामनगर प्रखंड के वनवर्ती दोन इलाके के में अब जहरीला धुंआ नहीं होगा और लोगों को दुधिया रोशनी भी मिलेगी। इस धुंआ रहित रोशनी का जुगाड़ किया वाल्मीकि टाइगर रिजर्व में काम कर रही संस्था वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट आफ इंडिया और दिल्ली की स्वयं सेवी संस्था टेरी ने। उक्त योजना के तहत फिलहाल खैरहनी व मजुराहां दो गांवों का चयन किया गया है। इन गांवों में वास करनेवाले करीब ढाई सौ परिवारों को सोलर लैंप देने की योजना है। वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट आफ इंडिया के सहायक प्रबंधक समीर कुमार सिन्हा बताते हैं कि ग्रामीणों को सोलर लैंप देने के पीछे मूल उद्देश्य यह है कि गांव के कुछ लोगों को रोजगार मिले, जंगल से सटे इस इलाके में केरोसिन से जलनेवाले दीपक के स्मोक से प्रदूषण नहीं फैले और ब्राइट लाइट में लोगों की सुरक्षा भी वन्य जीव प्राणियों से हो सके। यहीं नहीं सबसे अहम बात है कि विकास के मामले में पिछड़े इस इलाके में लोगों को रात में अपने बच्चों को पढ़ाने का बेहतर अवसर मिले। समीर के मुताबिक सोलर सिस्टम के लिए टेरी ने जो प्रावधान दिया है, उसके अनुसार गां

वाल्मीकि टाइगर रिजर्व के गांवों में होती है सर्वाधिक लकड़ी की खपत

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देश के 75 प्रतिशत लोग जलावन के रूप में लकड़ी पर आश्रित है। जबकि बिहार की इकलौती व्याघ्र परियोजना वाल्मीकि टाइगर रिजर्व से सटे गांवों में यह आंकड़ा 81 प्रतिशत है। टाइगर रिजर्व के मध्य में अवस्थित दोन क्षेत्र में किए गए एक अध्ययन के मुताबिक इस क्षेत्र में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन ईंधन के लिए 1.6 किलोग्राम जलावन की खपत करता है। औसतन यहां के हर घर के लोग सप्ताह में 12 घंटे जलावन चुनने में लगे रहते हैं। वैसे जलावन चुनने में महिलाओं की संख्या अधिक है। फिर भी 40 फीसदी घरों के बच्चे जंगलों में जलावन चुनने को मजबूर हैं। वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट आफ इंडिया के सहायक प्रबंधक डा. समीर कुमार सिन्हा द्वारा किए गए शोध के आंकड़े दर्शाते है कि देश के अन्य हिस्सों के जंगलों के समीप बसे गांवों में प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष औसतन 424 किलोग्राम लकड़ी का उपयोग होता है। जबकि वाल्मीकि टाईगर रिजर्व से सटे गांवों में यह आंकड़ा प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष 566 किलोग्राम है। वाल्मीकि टाईगर रिजर्व से सटे दोन क्षेत्र के लगभग सौ घरों में 10 से 15 दिनों के दौरान जुटाए गए आंकड़ों से यह स्पष्ट है कि इस क्षेत्र में जलावन के रूप में लकड़ी

यह त्याग है या लिप्सा...

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बिहार में इन दिनों राजनीतिक भूचाल आया है। यह भूचाल भाजपा व जदयू के बीच का है। बिल्कुल सांप-छछूंदर जैसा। सूबे के मुखिया नीतीश कुमार का मिजाज इन दिनों बदला-बदला सा है। दोस्ती में दरार पड़ी है। सारा बवाल सिर्फ एक विज्ञापन को लेकर है। वह भी सत्ता के भागीदार दल के ही नेता गुजरात के मुख्यमंत्री के साथ हाथ में हाथ डाले तस्वीर को लेकर। विज्ञापन छपा। नीतीश जी ने पहले तो सहयोगी दल भाजपा के राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्यों के लिए आयोजित भोज को स्थगित किया। विज्ञापन छपने को लेकर कानूनी कार्रवाई करने की चेतावनी दी और बाद में गुजरात सरकार से कोसी आपदा के समय आई राहत की राशि वापस कर दी। राज्य की जनता स्तब्ध है कि आखिर अपने इस राज्य में हो क्या रहा है। सत्ता के गलियारे में सीन साफ हो चुका है कि सारा मामला अल्पसंख्यक वोट को लेकर है। अब मामला आमने-सामने की जंग में तब्दील होता नजर आ रहा है। नीतीश जी की विश्वास यात्रा से उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने किनारा क्या किया उन्होंने राजधानी के पटना सिटी (राजग संयोजक नंदकिशोर यादव के क्षेत्र) में आयोजित कार्यक्रम को रद कर दिया। वजह मोदी जी ने उनके एक कार्यक्

जरा सोचिए एक दिन जाना है आखर खाट पर ही...

आखर खाट काली रात। चहुं ओर टहलता मेरा यार। मेरे यार की दीवानगी देखो। मरने के बाद शव से निभाया प्यार।                                                                           आखर खाट को जरा गंभीरता से लेने की जरूरत है। यहीं अंतिम सत्य है। इसी खाट तक जाकर आदमी बस आदमी, एक शरीर के रुप में शेष रह जाता है। कोई छोटा बड़ा नहीं होता। सभी बराबर हो जाते हैं। हमारे पड़ोसी, हमारे लोग जहां भी होते हैं जब वक्त हमें आखर खाट पर ले जाता है तो सिर के बल भाग कर आते है। रोते है, अफशोष करते हैं। बड़ा बेहतर साथी था आज आखिर उसी खाट पर जा लेटा, जहां से अब बस उसकी याद ली जा सकती उसके लिए दुआ की जा सकती है। वह भी उसकी आत्मा की शांति के लिए। आखर खाट पर जब आदमी बिना आत्मा (मृत) स्थिति में सोता है, तो देखिए कैसे-कैसे समाज उसके साथ व्यवहार करता है। कोई आता है तो उस आखर खाट पर पड़े व्यक्ति या महिला को भूखी निगाह से देखता है। यह भूख आदमी-आदमी पर निर्भर करती है। जो अपने जीवन साथी से बिछड़ा होता है, उसके लिए दिन और चांदनी रात भी काली हो जाती है। सामने वाला प्रेमी अथवा अपनी प्रेयसी के बिछडऩे की आग में ऐसा जलता है कि

बिहार में मोदी पर बवाल : एक तस्वीर क्या छपी निवाला भी न मिला...

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आज सुबह (13 जून) का अखबार पढ़ रहा था। अखबार के टाप पर मिली राजनीति। राजनीति बिहार की और उसमें गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की भरपूर चर्चा। वह चर्चा भी महज एक विज्ञापन को लेकर। अखबारों ने इस बाबत जो खबर प्रकाशित की थी, उससे एक बात उभरकर सामने आई की 12 जून के अंक बिहार के अखबारों में एक विज्ञापन छप गया था। विज्ञापन में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को एक साथ दिखाया गया है। यहीं आकर सारा मामला फंस गया है। मतलब साफ है बिहार में नीतीश भले ही भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन की सरकार चला रहे हैं, लेकिन वे हमेशा से इस फेरे में रहे कि उनकी छवि धर्म निरपेक्ष रहे और कहीं से उनपर अल्पसंख्यक विरोधी होने का ठप्पा नहीं लगे। और भाई नरेन्द्र मोदी जी तो अक्सर इस तरह के मामलों के लिए विवादों में रहे हैं। फिर क्या था नीतीश जी ने विज्ञापन देखा। मीडिया को बुलाया बयान- दिया। अखबारों ने जो उनका बयान पेश किया वह यह था कि विज्ञापन प्रकाशन से पूर्व उनसे अनुमति नहीं ली गई यह गैर कानूनी है। इसके लिए वे कानूनी कार्रवाई करेंगे। कोसी विपदा के समय गुजरात से आई राशि वा

देखिए ना सरकार : बिहार की इस चीनी मिल में आई है जान

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2005 में बिहार के सफर पर एक शख्स निकला था। नाम है दीपक यादव। इस क्रम में ट्रेन से कई देशों का भ्रमण कर चुके दीपक ने बिहार के अभिन्न अंग चम्पारण की हरियाली देखी थी। हरियाली से भरे इस इलाके में लोगों की झोपड़ी, खपरैल घर और लोगों तन पर पड़े कपड़ों को देखा था। उस समय इस युवक को बात का एहसास हुआ था कि तमाम संभावनाएं होने के बावजूद आर्थिक संरचना के अभाव में बिहार और इसके अभिन्न अंग चम्पारण का समग्र विकास नहीं हो पा रहा है। फिर बिहार के संदर्भ में सोचा और यहां इंडस्ट्री लगाने की प्लान में लगे। वजह साफ - एक तो बिहार हरियाली के मामले में पंजाब व अन्य राज्यों से बेहतर है। फिर यहां की जो आबादी है वह भोली है। यहां के लोग मेहनती हैं। फिर दीपक ने यह ठाना कि अहिंसा की प्रयोगस्थली चम्पारण में बिहार और चम्पारण की विकास गाथा लिखी जाएगी। इसके लिए प्लान भी बनाने लगे। इसी बीच दिल्ली में मिल गए तिरुपति सुगर मिल, बगहा के पूर्व मालिक मनोज पोद्दार। मनोज ने दीपक को बताया मिल पूरी तरह से अंतिम सांसे गिन रही है और वे मिल को बेचना चाहते हैं। एक ऐसे हाथ में, जो किसानों के बकाए का भुगतान दे सके और मिल को बेहतर स्थि

बिहार, विकास, विश्वास और नीतीश

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स्टार्ट लेता हूं बिहार की एक ऐसी पंचायत से जहां कल तक भूख थी, बेकारी थी, गरीबी थी। इसी खाई को पाटने के लिए बिहार सरकार ने राज्य की कुछ चुनिंदा पंचायतों को आदर्श पंचायत का दर्जा दिया। उन्हीं में से एक है राज्य के पश्चिम चम्पारण जिला के रामनगर प्रखंड की बगही पंचायत। दरअसल यह एक ऐसी पंचायत है, जिसने शायद कभी न तो विकास का रंग देखा और नहीं किसी विश्वास का पात्र बन पाया। वजह अब से एक दशक पहले तक तो यहां सड़क दलदल जमीन पर थी। चाहकर भी कोई कुछ नहीं कर पाता था। गांव में कोई बीमार पड़ता था तो इलाज के चार लोग मिलते थे और खाट पर लादकर सालम आदमी डाक्टर के पास ले जाया जाता था। परंतु, अब फिजा थोड़ी बदली है। यहां तक आने के लिए पक्की सड़क बन गई है। इस सड़क पर जुगाड़ (पटवन की मशीन से बना वाहन) के साथ-साथ माडा योजना के तहत दिए गए वाहन भी सवारी (आदमी) ढोते हैं। गांव के बगल में स्कूल खुले हैं और बच्चे पढऩे लगे हैं। गांव में डीलर राशन व केरोसिन देता है। परंतु, आज भी यहां गरीबी का स्थाई डेरा है। बात विकास के बूते जनता के दिल में उगे विश्वास के पेड़ की थी, सो उसकी हरियाली को मापने का मन बनाया बिहार के मुख्यम

आप आए जनाब वर्षों में, हमने देखी बहार वर्षों में...

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दिन बुधवार। तारीख 28 अप्रैल। साल 2010। स्थल बिहार की इकलौती व्याघ्र परियोजना वाल्मीकि टाइगर रिजर्व का इलाका- वाल्मीकिनगर। शाम के बादल मंडराने वाले थे कि वाल्मीकिनगर के ऐतिहासिक हवाई अड्डे पर एक उडऩखटोले ने दस्तक दिया। उससे उतरे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार। वजह जनता से मिलने का अपने आप को जनता के बीच तौलने का। सवाल जनता का तो था ही अपनी मन की शांति का भी था, सो हवाई अड्डे पर ही नेताओं, मंत्रियों से मिले और चले गए अतिथि गृह। थोड़ी देर रुके फिर याद आ गई जंगल की, जंगल के राजा की, जंगल के हाल की। अतिथि गृह से अचानक सीएम का काफिला निकला और प्रवेश कर गया टाइगर रिजर्व के घने जंगलों में। बात किसी के समझ आ नहीं रही थी कि क्या हो रहा है? आखिर इस सीएम को हुआ क्या है? थोड़ी देर में यह सीएम कार से उतर गए। जंगल के पत्थरों को देखने लगे। जंगल में लगे दीमकों के मिïट्टी वाले भिंड को निहारने लगे। सभी भौंचक थे। किसी को हिम्मत नहीं हो रही थी कि कुछ बोले। एसपी डा. सिद्धार्थ बताए जा रहे थे। फिर अचानक नीतीश दाखिल हो गए टाइगर रिजर्व के गनौली गेस्ट हाउस में। वहां मिल गए वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट आफ इंडिया के समीर

पर्यावरण : देखिए सरकार कहीं खत्म न हो जाएं बाघ

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मैं 12 मार्च को एक ऐसी अन्त्येष्टि में शामिल होने गया था, जिसमें शामिल होने का अवसर हर आम को नहीं होता है। देखे तो आंख भर आए। यह कैसी अन्त्येष्टि है कि अन्त्येष्टि स्थल के पास ही लाश के हर हिस्से को फाड़कर रख दिया। बहुत सताया अब क्या सता पाएगी लाश है फाड़ डालो नौकरी का सवाल है और सरकार को जवाब भी देना है। ऐसी भी अन्त्येष्टि होती आप लोगों को जरा आश्चर्यजनक लग रहा होगा। परंतु, सच मानिए यह भी एक शव यात्रा ही है अंतर बस इतना है कि यह आदमी की शव यात्रा नहीं है वरन देश की सरकार के लिए चिंता का कारण बने जंगल की शान बाघ की रानी बाघिन की शव यात्रा है। स्थल है बिहार का वाल्मीकि टाइगर रिजर्व। दरअसल इस परियोजना के मदनपुर वनक्षेत्र से रायल बंगाल टाइग्रेस (बाघिन) की लाश 11 मार्च को एक गड्ढे में मिली। लाश क्या मिली विभाग का सारा अमला परेशान हो गया। आनन-फानन में राजधानी पटना से अधिकारियों की टीम चली। मदनपुर पहुंची और फिर 12 मार्च को चिकित्सक ने बाघिन की लाश को फाड़कर देखा कि कैसे मर गई? तत्काल कुछ भी पता नही चला। इतनी जानकारी हो गई कि बाघिन सात दिन पहले मरी होगी। फिर बेसरा सुरक्षित कर दिया गया और बाघि

आदमी समाज और समाज की फितरत

मैं बहुत छोटा था। गांव में पारिवारिक परंपरा के अनुसार बचपन गुजर रहा था। उस समय मेरी उम्र तकरीबन छ:ह सात साल की थी। मेरे दादा परिवार व समाज की परंपरा से मुझे वाकिफ कराते थे। उस समय मेरे यहां जमींदारी पूरी तरह तो नही, लेकिन उसकी ठसक जरूर लागू थी। मेरे दरवाजे पर आने से पहले लोग थोड़ी दूरी पर अपनी छतरी माथे से उतार लेते थे। दरवाजे पर आने के साथ जूता या चप्पल जो भी हो खुल जाता था। आवाज आती थी मालिक बानी। परिवार के सदस्यों को छोड़ किसी की भी हिम्मत नहीं होती थी कि वह दरवाजे पर लगी जंजीर बजा दे। मैं यदि स्कूल से लौटा रहता था तो खट दरवाजे पर जाता था और मौके पर गंदे कपड़े में लिपटे लोग बउआ कहकर गोद में ले लेते थे। अभी ठीक से बात कर पाता कि घर के बड़े बाहर आ जाते थे और वह गरीब मुझे अपनी गोद से उतार देता था। मानों जैसे भरत महरा को सांप सूंघ जाता था। भरत महरा कोई और नहीं थे मेरी बैलगाड़ी के गाड़ीवान थे। एक बार मैने पूछा कि भरत चाचा आप नीचे जमीन पर क्यों बैठते हैैं। तो वे बताते थे कि एकरा ला कोई बोलेला ना। इ हमनी के बाप दादा के सिखावल बात ह। रुउरा परिवार के लगे काफी जमीन बा रउरे जमीन में सबके जीवन

मुझे संवार दो मैं सहारा हूं जमाने भर के लिए

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मां । मतलब जन्नत। मतलब सेवकाई के दम पर दुनियां भर में पूजी जानेवाली वह देवी, जिसके नाम से दुनियां चलती हैं। पर आज की चकाचौंध भरी दुनियां में हम यह भूल गए हैं कि आज जो हमारी मां है। वह भी कभी किसी के गर्भ में पली होगी। वह भी किसी की बेटी रही होगी। उसे भी किसी ने पाला होगा। वह बिल्कुल अपनी मां की प्रतिमूर्ति बनी होगी। फिर मां ने बिटिया का ब्याह रचाया होगा और फिर हम जैसे न जाने कितने अपनी मां के लाल हुए। परंतु, उसी मां के लाल होकर हम यह भूल गए और पाप समझ बेटियों को फेंकते गए। आखिर क्यों फेंकी जाती हैं बेटियां। क्या बेटियां पाप हैं। यदि बेटियां पाप हैं तो फिर पुण्य क्या है? आपने तो बस यहीं सुना होगा कि गर्भ में मार दी जाती है। लेकिन मैने अपनी आंख से देखा है। गन्ने के खेत में रोती-बिलखती बेटी को, जिसे चील कौवे नोंच खाने को तैयार थे। वह बेटी अभी मां के गर्भ से निकली ही थी। उसे उसकी मां ने ठीक से देखा नहीं भी होगा और अपने से दूर कर दिया। बात किसी दूसरे जगह की नहीं है। बात उसी चम्पारण की है, जहां से कभी महात्मा गांधी ने लोगों को अहिंसा का फाठ पढ़ाया था। अंग्रेजी हुकूमत को उखाड़ फेंका था। आज व

वो बेकरार मुसाफिर मैं रास्ता यारों...

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आदमी। फितरत। समाज। तीनों बेहतर हो तो फिर मान लीजिए कि जीवन धन्य हुआ और आप जीवन की जंग जीत गए। लेकिन ऐसा अब शायद हीं कहीं होता है। होता भी है कि नहीं यकीन से कोई नहीं कह सकता। मैने देखा है कि जवानी की दहलीज को कैसे बेकरार मुसाफिर पार करते हैं और न जाने कितनी सांसे थम जाती है। यदि किसी कि सांस बची तो जिल्लत भरी। आह भरी। दर्द की याद भरी। उपर से हर उस सफर की निशानी से जूझने की जिद से लहूलुहान जिगर के साथ। यह कैसी सांस और यह कैसा जीवन। बात उस प्यार के सफर की और यार की बेकरारी की जो अचानक से जीने का मतलब ही छीन लेता है। वर्तमान में हम जिस दुनियां में जीते हैं। हर दिन नई चुनौती है। कहीं गरीबी है तो कहीं यारी है। कही चैन है तो कहीं बेकरारी है। इसी बेकरारी से जूझता एक प्रसंग बताता हूं बिहार के पश्चिम चम्पारण जिलान्तर्गत चौतरवा थाना के अधीन है एक गांव कौलाची। गांव में एक बिन ब्याही मां है, जो अपनी लाड़ली को बाप का नाम दिलाने के लिए राज्य के मुख्यमंत्री तक का दरवाजा खटखटा चुकी है। उसके चेहरे पर बेबसी साफ दिखती है। सीने से अपनी बच्ची को लगाए एक झोपड़े में अपने उस प्यार के बेकरार सफर में खोयी रहती

बिहार की नदियां सोना उगलती हैं!

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मैं उस नदी के तट पर खड़ा हूं जो मुफलिसी के मारे लोगों के लिए सोना उगलती है। अभी नदी में पानी कम है। ज्यादा से ज्यादा घुटने तक। नदी में कुछ लोग मेढ़ बना रहे हैं और कुछ बालू व कंकरीट से सोना निकाल रहे हैं। सहसा किसी को भी भरोसा नहीं होगा कि ऐसी भी नदी होती है, जो सोना उगलती है। पड़ताल की। पता चला कि बिहार के पश्चिम चम्पारण जिलान्तर्गत खैरहनी दोन के कई लोग काठ के डोंगा, ठठरा, पाटा व पाटी के साथ नदी की धारा से सोना निकाल रहे हैं। वह भी सचमुच का। इतने में एक जिगरा के छाल के लेप से लबालब सतसाल की लकड़ी पर कुछ बालू व सोना लिए आया। दिखाते हुए कहता है- साहब यह देखिए यह सोना है और यह है बालू। इसे निकालने की तरकीब। उसने बताया पहले नदी में मेढ़ बांधते हैं। फिर डोगा लगाते हैं। तब उसपर ठठरा रखते है। पत्थर ठठरे के उपर, बालू डोगा के अंदर और फिर बालु की धुलाई। तब बालू सतसाल की काली लकड़ी पर फिर धुलाई तब जाकर दिनभर में निकलता एक से दो रती सोना। इतने पे बात समाप्त नहीं होती। इसके आगे जानिए। सतसाल की पटरी से सोने के कण को उठाकर जंगली कोच के पत्ता पर सोहागा के साथ रखते हैं। आग में तपाते हैं। फिर अंत में ल

... तो क्या मौत का खौफ सताने लगा ?

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कहते है जीने का सौक सबको है, लेकिन यह कैसा मौत यह कैसा जीना। 4 मई 1964 को जिस इंदिरा प्रियदर्षनी ने बिहार के पश्चिम चम्पारण के वाल्मीकिनगर के वादियों की सैर देश के प्रथम् प्रधानमंत्री पंडित नेहरु के साथ की थी उन्होंने कभी सपने में भी सोचा था कि उनकी भी जान एक दिन यूं हीं चली जाएगी। नहीं कभी नहीं। ऐसा मै मानता हूं। मौत आदमी को बता कर नहीं आती है। जब आती है तो जान लेकर जाती है। परंतु, शायद इसी मौत के खौफ के कारण बिहार व नेपाल ही नहीं वरन उत्तर प्रदेश के कई जिलों को को बाढ़ व गरीबी से बचानेवाले गंडक बराज का उद्घाटन आजतक नहीं हुआ। 4 मई 1964 के बाद यहां कोई बड़ा नेता शायद इसी वजह से नहीं आया। बिहार के पश्चिम चम्पारण जिले के बगहा पुलिस जिलान्तर्गत स्थित वाल्मीकिनगर में जाने के साथ सारी हकीकत सामने आ जाती है। मैैं आज गया था। एक व्यक्ति है, जिससे आपका परिचय अगले पोस्ट में करा दूंगा। बताता है कि नेहरु जी जब आए थे तो बीमार थे। चिलचिलाती धूप थी। इंदिरा जी साथ थीं। एक छतरी लिए थीं। पिता को सहारा दे रहीं थी। नेहरु जी बराज का शिलान्यास कर लौट गए और कुछ दिन बाद स्वर्ग सिधार गए। लगता है इसी वजह से आज

सच मानिए इस दर्द की दवा होगी

बात नेहरु व नेपाल नरेश के सपने के साथ-साथ राजनीति की फसल का है, सो अब इस दर्द की दवा भी की जा रही है। मैने देखा है भाई। हकीकत है सरकार गंभीर हुई है। सवाल किसानी को संवारने का ही नहीं देश की राजनीति के उस महानायक टाइप पापुलरिटी गेन करने का भी है। सबसे बड़ा लोचा तो यह है कि इन्हें भी राजनीति करनी है और बिहार में वोट बैैंक बस गांव व किसान है। फिर क्यों नहीं नहरों को देखा जाय। सरकार ने सम विकास योजना के तहत नहरों के पुनस्र्थापन के लिए 448 करोड़ की योजना लागू कर दी है। इस योजना के तहत कराये जानेवाले कार्यों की निविदा भी हो चुकी है। 15 नवंबर से योजना पर काम भी हो रहा है, लेकिन देखना यह होगा देश के प्रथम प्रधानमंत्री के उस ख्वाब को साकार करने के लिए शुरू हुए इस अभियान में किस हद तक ईमानदारी बरती जा रही है और कहां तक सरकार इसमें काम करा पाती है।

... आखिर इस दर्द की दवा क्या है?

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यह गंडक बराज का पहला पाया है। इसे सिर्फ एक पाया समझना थोड़ी जल्दबाजी होगी। इस बराज में एक नहीं 36 पाये हैैं। 18 भारत, 18 नेपाल में। हर पाये के साथ एक फाटक भी। इसकी हकीकत। यह (बराज) गरीबी व तंगहाली से परेशान भारत-नेपाल के किसानों के लिए देश के प्रथम प्रधानमंत्री स्व. पंडित जवाहर लाल नेहरु व नेपाल के तत्कालीन नरेश महेन्द्रवीर विक्रम शाह द्वारा विनाशकारी गंडक की धारा पर खींची गयी विकास की वह लकीर है, जिसके सहारे दोनों देशों की किसानी के लिए नहरें व विद्युत परियोजना लगाकर गांव-गांव तक बिजली पहुंचाने का ख्वाब भारत के लिए स्व. नेहरु व नेपाल के लिए स्व. शाह ने देखा था। लेकिन नहरों के वर्तमान हाल के लिए मिर्जा गालिब की यह पंक्ति बिल्कुल सटीक है- दिले नादान तुझे हुआ क्या है। आखिर इस दर्द की दवा क्या है? हम है मुस्ताक और वो बेजार। या इलिहाई ये माजरा क्या है? मतलब हमारे देश की आत्मा (गांवों) के लिए आज यह बराज और इससे निकली नहरें बस तबाही की गाथा लिख सकती हैैं। न कि उस ख्वाब को साकार करनेवाली हैैं, जो किसानी के सपनों की ताबीर है। यहां बताता हूं कि बराज की स्थापना के लिए वर्ष1959 में भारत-नेपाल क