... तो क्या मौत का खौफ सताने लगा ?

कहते है जीने का सौक सबको है, लेकिन यह कैसा मौत यह कैसा जीना। 4 मई 1964 को जिस इंदिरा प्रियदर्षनी ने बिहार के पश्चिम चम्पारण के वाल्मीकिनगर के वादियों की सैर देश के प्रथम् प्रधानमंत्री पंडित नेहरु के साथ की थी उन्होंने कभी सपने में भी सोचा था कि उनकी भी जान एक दिन यूं हीं चली जाएगी। नहीं कभी नहीं। ऐसा मै मानता हूं। मौत आदमी को बता कर नहीं आती है। जब आती है तो जान लेकर जाती है। परंतु, शायद इसी मौत के खौफ के कारण बिहार व नेपाल ही नहीं वरन उत्तर प्रदेश के कई जिलों को को बाढ़ व गरीबी से बचानेवाले गंडक बराज का उद्घाटन आजतक नहीं हुआ। 4 मई 1964 के बाद यहां कोई बड़ा नेता शायद इसी वजह से नहीं आया। बिहार के पश्चिम चम्पारण जिले के बगहा पुलिस जिलान्तर्गत स्थित वाल्मीकिनगर में जाने के साथ सारी हकीकत सामने आ जाती है। मैैं आज गया था। एक व्यक्ति है, जिससे आपका परिचय अगले पोस्ट में करा दूंगा। बताता है कि नेहरु जी जब आए थे तो बीमार थे। चिलचिलाती धूप थी। इंदिरा जी साथ थीं। एक छतरी लिए थीं। पिता को सहारा दे रहीं थी। नेहरु जी बराज का शिलान्यास कर लौट गए और कुछ दिन बाद स्वर्ग सिधार गए। लगता है इसी वजह से आज तक नेता इस बराज के उद्घाटन के लिए नहीं आए और देश की किसानी और किसानों को भूल गए वरना...!

Comments

  1. ये तो हमारी बदकिस्मती है की हमारे पोलिटिकल लोग इतना डरते हैं की उस सोने सी जगह जाने से डरते हैं.

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  2. Apane des ke neta ab pahlewale nahi rahe.
    RAJESH

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  3. You have written a hidden truth. RAJ.

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