... आखिर इस दर्द की दवा क्या है?


यह गंडक बराज का पहला पाया है। इसे सिर्फ एक पाया समझना थोड़ी जल्दबाजी होगी। इस बराज में एक नहीं 36 पाये हैैं। 18 भारत, 18 नेपाल में। हर पाये के साथ एक फाटक भी। इसकी हकीकत। यह (बराज) गरीबी व तंगहाली से परेशान भारत-नेपाल के किसानों के लिए देश के प्रथम प्रधानमंत्री स्व. पंडित जवाहर लाल नेहरु व नेपाल के तत्कालीन नरेश महेन्द्रवीर विक्रम शाह द्वारा विनाशकारी गंडक की धारा पर खींची गयी विकास की वह लकीर है, जिसके सहारे दोनों देशों की किसानी के लिए नहरें व विद्युत परियोजना लगाकर गांव-गांव तक बिजली पहुंचाने का ख्वाब भारत के लिए स्व. नेहरु व नेपाल के लिए स्व. शाह ने देखा था। लेकिन नहरों के वर्तमान हाल के लिए मिर्जा गालिब की यह पंक्ति बिल्कुल सटीक है- दिले नादान तुझे हुआ क्या है। आखिर इस दर्द की दवा क्या है? हम है मुस्ताक और वो बेजार। या इलिहाई ये माजरा क्या है? मतलब हमारे देश की आत्मा (गांवों) के लिए आज यह बराज और इससे निकली नहरें बस तबाही की गाथा लिख सकती हैैं। न कि उस ख्वाब को साकार करनेवाली हैैं, जो किसानी के सपनों की ताबीर है। यहां बताता हूं कि बराज की स्थापना के लिए वर्ष1959 में भारत-नेपाल के बीच गंडक समझौता हुआ था। समझौता इस बात का कि दोनों देशों के बीच आवागमन बेहतर होगा और कई राज्य व जिलों के किसान अपनी किसानी के बूते अपने-अपने देश का इतिहास लिखेंगे। यह समझौता 4 दिसंबर 1959 को नेपाल की राजधानी काठमांडू में हुआ। नेपाल की ओर से वहां के उप प्रधानमंत्री सुर्वण समसेर जंग बहादुर राणा व भारत की ओर से तत्कालीन राजदूत भगवान सहाय ने समझौते पर हस्ताक्षर किया। समझौते में यह बात तय की गयी कि बराज की स्थापना के बाद दोनों देशों में नहरों से किसानों को जलापूर्ति की जायेगी व विद्युत परियोजनाएं लगायी जायेंगी। 4 मई 1964 को देश के प्रथम् प्रधानमंत्री स्व. नेहरु व नेपाल नरेश स्व. शाह ने संयुक्त तौर पर पश्चिम चम्पारण के जिलामुख्यालय से करीब 105 किलोमीटर की दूरी पर स्थित वाल्मीकिनगर व नेपाल के त्रिवेणी बार्डर पर बराज की आधारशिला रखी। करीब 6 साल बाद वर्ष 1970 में यह ऐतिहासिक बराज बनकर तैयार हुआ। इसके पहले फाटक से निकाली गयी मुख्य पूर्वी नहर व नेपाली क्षेत्र में स्थित अंतिम पाया 36 वे के फाटक से निकाली गयी मुख्य पश्चिमी नहर। नहरें निकलीं और इण्डो-नेपाल के बार्डर पर स्थित बिहार, उत्तर प्रदेश व नेपाल के कई जिलों में किसानी का रंग बदलने लगा और लोग खुशहाल होने लगे। लेकिन इन नहरों का हश्र 1990 के दशक के बाद से काफी बुरा है। आज स्थिति यह है कि नहरों के बांध टूटे हैैं व सिल्ट से भरी इनके पेट में पेड़-पौधे उपज आये हैैं। कहीं-कहीं तो कुछ नहरों में खेती भी होती है। किसान परेशान हैैं और किसानी तबाह हो रही है। यहां उल्लेख करना आवश्यक है कि मुख्य पूर्वी नहर जिसमें 18 हजार क्यूसके पानी छोड़कर बिहार के बेतिया, मोतिहारी व मुजफ्फरपुर तक किसानों की किसानी को बेहतर करना था। जबकि मुख्य पश्चिमी नहर में 25 हजार क्यूसेक पानी छोड़कर उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती व नेपाल के नवलपरासी, बारा व रौतहट जिले के सैकड़ों गांवों की किसानी बेहतर की जानी थी। लेकिन आज स्थिति यह है कि इन नहरों में अंतिम बार करीब 6 हजार क्यूसेक तक हीं पानी छोड़ा गया। अर्थात् जैसे नेहरु के सपनों को किसी की बुरी नजर लग गयी और किसानी अंतिम पायदान पहुंच गयी। तभी तो आज तक इस ऐतिहासिक बराज का उद्घाटन तक करना हमारे देश के हुक्मरानों ने मुनासिब नहीं समझा।

Comments

  1. munasib is liyea nahi samjha ki aaj kal ke neta desh ke liyea nahi balki aapne liyea ho rahe hai

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

आखिर क्यों पगला गई एक जननी?

देखिए ना सरकार : बिहार की इस चीनी मिल में आई है जान