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Showing posts from February, 2010

मुझे संवार दो मैं सहारा हूं जमाने भर के लिए

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मां । मतलब जन्नत। मतलब सेवकाई के दम पर दुनियां भर में पूजी जानेवाली वह देवी, जिसके नाम से दुनियां चलती हैं। पर आज की चकाचौंध भरी दुनियां में हम यह भूल गए हैं कि आज जो हमारी मां है। वह भी कभी किसी के गर्भ में पली होगी। वह भी किसी की बेटी रही होगी। उसे भी किसी ने पाला होगा। वह बिल्कुल अपनी मां की प्रतिमूर्ति बनी होगी। फिर मां ने बिटिया का ब्याह रचाया होगा और फिर हम जैसे न जाने कितने अपनी मां के लाल हुए। परंतु, उसी मां के लाल होकर हम यह भूल गए और पाप समझ बेटियों को फेंकते गए। आखिर क्यों फेंकी जाती हैं बेटियां। क्या बेटियां पाप हैं। यदि बेटियां पाप हैं तो फिर पुण्य क्या है? आपने तो बस यहीं सुना होगा कि गर्भ में मार दी जाती है। लेकिन मैने अपनी आंख से देखा है। गन्ने के खेत में रोती-बिलखती बेटी को, जिसे चील कौवे नोंच खाने को तैयार थे। वह बेटी अभी मां के गर्भ से निकली ही थी। उसे उसकी मां ने ठीक से देखा नहीं भी होगा और अपने से दूर कर दिया। बात किसी दूसरे जगह की नहीं है। बात उसी चम्पारण की है, जहां से कभी महात्मा गांधी ने लोगों को अहिंसा का फाठ पढ़ाया था। अंग्रेजी हुकूमत को उखाड़ फेंका था। आज व

वो बेकरार मुसाफिर मैं रास्ता यारों...

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आदमी। फितरत। समाज। तीनों बेहतर हो तो फिर मान लीजिए कि जीवन धन्य हुआ और आप जीवन की जंग जीत गए। लेकिन ऐसा अब शायद हीं कहीं होता है। होता भी है कि नहीं यकीन से कोई नहीं कह सकता। मैने देखा है कि जवानी की दहलीज को कैसे बेकरार मुसाफिर पार करते हैं और न जाने कितनी सांसे थम जाती है। यदि किसी कि सांस बची तो जिल्लत भरी। आह भरी। दर्द की याद भरी। उपर से हर उस सफर की निशानी से जूझने की जिद से लहूलुहान जिगर के साथ। यह कैसी सांस और यह कैसा जीवन। बात उस प्यार के सफर की और यार की बेकरारी की जो अचानक से जीने का मतलब ही छीन लेता है। वर्तमान में हम जिस दुनियां में जीते हैं। हर दिन नई चुनौती है। कहीं गरीबी है तो कहीं यारी है। कही चैन है तो कहीं बेकरारी है। इसी बेकरारी से जूझता एक प्रसंग बताता हूं बिहार के पश्चिम चम्पारण जिलान्तर्गत चौतरवा थाना के अधीन है एक गांव कौलाची। गांव में एक बिन ब्याही मां है, जो अपनी लाड़ली को बाप का नाम दिलाने के लिए राज्य के मुख्यमंत्री तक का दरवाजा खटखटा चुकी है। उसके चेहरे पर बेबसी साफ दिखती है। सीने से अपनी बच्ची को लगाए एक झोपड़े में अपने उस प्यार के बेकरार सफर में खोयी रहती

बिहार की नदियां सोना उगलती हैं!

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मैं उस नदी के तट पर खड़ा हूं जो मुफलिसी के मारे लोगों के लिए सोना उगलती है। अभी नदी में पानी कम है। ज्यादा से ज्यादा घुटने तक। नदी में कुछ लोग मेढ़ बना रहे हैं और कुछ बालू व कंकरीट से सोना निकाल रहे हैं। सहसा किसी को भी भरोसा नहीं होगा कि ऐसी भी नदी होती है, जो सोना उगलती है। पड़ताल की। पता चला कि बिहार के पश्चिम चम्पारण जिलान्तर्गत खैरहनी दोन के कई लोग काठ के डोंगा, ठठरा, पाटा व पाटी के साथ नदी की धारा से सोना निकाल रहे हैं। वह भी सचमुच का। इतने में एक जिगरा के छाल के लेप से लबालब सतसाल की लकड़ी पर कुछ बालू व सोना लिए आया। दिखाते हुए कहता है- साहब यह देखिए यह सोना है और यह है बालू। इसे निकालने की तरकीब। उसने बताया पहले नदी में मेढ़ बांधते हैं। फिर डोगा लगाते हैं। तब उसपर ठठरा रखते है। पत्थर ठठरे के उपर, बालू डोगा के अंदर और फिर बालु की धुलाई। तब बालू सतसाल की काली लकड़ी पर फिर धुलाई तब जाकर दिनभर में निकलता एक से दो रती सोना। इतने पे बात समाप्त नहीं होती। इसके आगे जानिए। सतसाल की पटरी से सोने के कण को उठाकर जंगली कोच के पत्ता पर सोहागा के साथ रखते हैं। आग में तपाते हैं। फिर अंत में ल

... तो क्या मौत का खौफ सताने लगा ?

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कहते है जीने का सौक सबको है, लेकिन यह कैसा मौत यह कैसा जीना। 4 मई 1964 को जिस इंदिरा प्रियदर्षनी ने बिहार के पश्चिम चम्पारण के वाल्मीकिनगर के वादियों की सैर देश के प्रथम् प्रधानमंत्री पंडित नेहरु के साथ की थी उन्होंने कभी सपने में भी सोचा था कि उनकी भी जान एक दिन यूं हीं चली जाएगी। नहीं कभी नहीं। ऐसा मै मानता हूं। मौत आदमी को बता कर नहीं आती है। जब आती है तो जान लेकर जाती है। परंतु, शायद इसी मौत के खौफ के कारण बिहार व नेपाल ही नहीं वरन उत्तर प्रदेश के कई जिलों को को बाढ़ व गरीबी से बचानेवाले गंडक बराज का उद्घाटन आजतक नहीं हुआ। 4 मई 1964 के बाद यहां कोई बड़ा नेता शायद इसी वजह से नहीं आया। बिहार के पश्चिम चम्पारण जिले के बगहा पुलिस जिलान्तर्गत स्थित वाल्मीकिनगर में जाने के साथ सारी हकीकत सामने आ जाती है। मैैं आज गया था। एक व्यक्ति है, जिससे आपका परिचय अगले पोस्ट में करा दूंगा। बताता है कि नेहरु जी जब आए थे तो बीमार थे। चिलचिलाती धूप थी। इंदिरा जी साथ थीं। एक छतरी लिए थीं। पिता को सहारा दे रहीं थी। नेहरु जी बराज का शिलान्यास कर लौट गए और कुछ दिन बाद स्वर्ग सिधार गए। लगता है इसी वजह से आज

सच मानिए इस दर्द की दवा होगी

बात नेहरु व नेपाल नरेश के सपने के साथ-साथ राजनीति की फसल का है, सो अब इस दर्द की दवा भी की जा रही है। मैने देखा है भाई। हकीकत है सरकार गंभीर हुई है। सवाल किसानी को संवारने का ही नहीं देश की राजनीति के उस महानायक टाइप पापुलरिटी गेन करने का भी है। सबसे बड़ा लोचा तो यह है कि इन्हें भी राजनीति करनी है और बिहार में वोट बैैंक बस गांव व किसान है। फिर क्यों नहीं नहरों को देखा जाय। सरकार ने सम विकास योजना के तहत नहरों के पुनस्र्थापन के लिए 448 करोड़ की योजना लागू कर दी है। इस योजना के तहत कराये जानेवाले कार्यों की निविदा भी हो चुकी है। 15 नवंबर से योजना पर काम भी हो रहा है, लेकिन देखना यह होगा देश के प्रथम प्रधानमंत्री के उस ख्वाब को साकार करने के लिए शुरू हुए इस अभियान में किस हद तक ईमानदारी बरती जा रही है और कहां तक सरकार इसमें काम करा पाती है।

... आखिर इस दर्द की दवा क्या है?

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यह गंडक बराज का पहला पाया है। इसे सिर्फ एक पाया समझना थोड़ी जल्दबाजी होगी। इस बराज में एक नहीं 36 पाये हैैं। 18 भारत, 18 नेपाल में। हर पाये के साथ एक फाटक भी। इसकी हकीकत। यह (बराज) गरीबी व तंगहाली से परेशान भारत-नेपाल के किसानों के लिए देश के प्रथम प्रधानमंत्री स्व. पंडित जवाहर लाल नेहरु व नेपाल के तत्कालीन नरेश महेन्द्रवीर विक्रम शाह द्वारा विनाशकारी गंडक की धारा पर खींची गयी विकास की वह लकीर है, जिसके सहारे दोनों देशों की किसानी के लिए नहरें व विद्युत परियोजना लगाकर गांव-गांव तक बिजली पहुंचाने का ख्वाब भारत के लिए स्व. नेहरु व नेपाल के लिए स्व. शाह ने देखा था। लेकिन नहरों के वर्तमान हाल के लिए मिर्जा गालिब की यह पंक्ति बिल्कुल सटीक है- दिले नादान तुझे हुआ क्या है। आखिर इस दर्द की दवा क्या है? हम है मुस्ताक और वो बेजार। या इलिहाई ये माजरा क्या है? मतलब हमारे देश की आत्मा (गांवों) के लिए आज यह बराज और इससे निकली नहरें बस तबाही की गाथा लिख सकती हैैं। न कि उस ख्वाब को साकार करनेवाली हैैं, जो किसानी के सपनों की ताबीर है। यहां बताता हूं कि बराज की स्थापना के लिए वर्ष1959 में भारत-नेपाल क