काश मैं भी चंदन होता...
काश मैं भी चंदन होता।
पत्थर पे पिस जाता मैं।
लोग लगाते माथे।
देवों के सिर चढ़ता।
खुद पर मैं इठलाता।
सांपों के संग रहा मैं।
सांपों के संग खेला।
सांप रहे लिपटे मुझसे।
मैं भी उनमे खोया।।
ए सर्प बड़े जहरीले निकले।
खूब रहे लिपटे मुझसे।
विष छोड़ जलाया तन।
मेरा क्या मैं चंदन था।
मैने सब विष ग्राह्य किया।
फिर भी विषधर न हुआ।
मैं जो विषधर बनता।
सांपों के संग खेलता।
फिर भी चंदन होता।
मैं जो चंदन होता।
पत्थर पे पिस जाता मैं।
लोग लगाते माथे।
देवों के सिर चढ़ता।
खुद पर मैं इठलाता।
सांपों के संग रहा मैं।
सांपों के संग खेला।
सांप रहे लिपटे मुझसे।
मैं भी उनमे खोया।।
ए सर्प बड़े जहरीले निकले।
खूब रहे लिपटे मुझसे।
विष छोड़ जलाया तन।
मेरा क्या मैं चंदन था।
मैने सब विष ग्राह्य किया।
फिर भी विषधर न हुआ।
मैं जो विषधर बनता।
ना लोग लगाते माथे।
ना देवों के सिर चढ़ता।
काश मैं भी चंदन होता।
बहुत सुंदर रचना...चंदन बनने की इच्छा...क्या खूब है
ReplyDeleteजो घिसने के दर्द की परवाह नहीं करे वह पाषाड भी मूरत बनकर पूजित हो जाता है, और वह चन्दन भी पूज़्यजनों के मस्तक की शोभा बन जाता है, परन्तु चन्दन का प्रथम गुण शीतलता और सुगन्ध है. यह स्मरण रहना चाहिए.
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